खालबच्चा क्या होता है इससे पहले हम यह समझने की कोशिश करेंगे की क्यों इंसान इस हद तक गिर जाता है कि उसे ऐसा घिनोना कृत्य करना पड़ता है।
जब कोई भी व्यवसाय किया जाता है तो उसका एक ही उद्देश्य होता है अधिक से अधिक मुनाफा कामना और यही बात डेयरी उद्योग और छोटे किसानों पर भी लागू होती है जो दूध के लिए गाय/भैंसों को घर में बाँध कर रखते हैं। अगर मुनाफा नहीं कमाया जाएगा तो डेयरी उद्योग भी नहीं चल पायेगा और दूध की बेहिसाब मांग भी पूरी नहीं हो सकेगी।
डेयरी उद्योग की सबसे दुखद बात यह है कि यह जीवित प्राणियों पर निर्भर है और वही उद्योग की धुरी भी है। भले ही वह घर पर गाय बांधना (सभ्य समाज में गाय पालना बोला जाता है) हो या डेयरी में, दोनों ही जगह यही प्रयास रहता है कि ज्यादा से ज्यादा दूध उत्पादन कर लाभ कमाया जाए। जब वित्तीय लाभ सर्वोपरि होता है तो एक बेजुबान प्राणी की पीड़ा गौण हो जाती है।
कोई भी पशु इस धरती पर किसी का गुलाम बनने के उद्देश्य से नहीं है, यह बात अलग है कि जीवो जीवस्य भोजनम् एक सत्य है लेकिन शेर भी अपने शिकार को आजीवन गुलाम बना कर नहीं रखता अपितु अपनी जरूरत के हिसाब शिकार करता है।
जब हर जीव का अपना अस्तित्व है तो जाहिर है उसके जीवन पर सिर्फ उसका ही अधिकार है और वह किसी भी कीमत पर किसी का दखल पसंद नहीं करता है।
लेकिन जब किसी जीव से कुछ लेने की बात आती है तो चालाकी की जरुरत होती है। इंसानों ने पशुओं के दूध पर अपना अधिकार ज़माने के लिए जानवरों के साथ कई तरह के छल-कपट का सहारा लिया होगा जो धीरे धीरे समाज में इतना सामान्य सा लगने लगा है कि अब वह उल्टा जानवरों के साथ किये जाने वाले छल के बजाय जानवरों के प्रति करुणा का प्रतीक लगने लगा है।
गाय को माता कहना भी इन छल कपट में से एक है। यह भी एक चालाकी ही कही जायेगी कि कैसे इंसान छल को करुणा दिखने में सफल रहा है। अब आने वाली पीढ़िया भी इस छल को समझने में नाकाम हो रही है।
डेयरी उद्योग में जानवरों की हालत किसी से छिपी नहीं है लेकिन दूध बेचने वाले को अपने मुनाफे से मतलब है और खरीदने वाला अपनी दूध की लत से मजबूर है। दोनों ही इस ओर न तो देखना चाहते हैं न ही सच्चाई को सुनना और समझना चाहते हैं।
जानवरों से दूध प्राप्त करना उतना आसान नहीं है जितना कि बचपन से सिखाया जाता है कि “गाय दूध देती है ” यह अधूरा ज्ञान बचपन से ही दिया जाता है। बेशक गाय दूध देती है लेकिन सिर्फ और सिर्फ उसके नवजात बच्चे के लिए न कि पूरी मानव प्रजाति के लिए।
जब इस दूध पर इंसान अपना अधिकार जताता है तो निश्चित ही उस बछड़े का हक़ छीना जाता है जिसका उस पर वास्तविक और प्राकृतिक अधिकार होता है।
डेयरी उद्योग ने इस कुकृत्य पर भी पर्दा डालने के लिए कई प्रकार के झूठ का सहारा लिया है जिसमें से एक है कि पहले बच्चे को दूध पिलाया जाता है फिर बेचने के लिए दूध निकाला जाता है।
अब इनसे कोई पूछे कि इन्होने डेयरी- पशुओं के बच्चो को दूध पिलाने के लिए खोली है या उनका दूध बाज़ार में बेच कर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के लिए?
एक सामान्य परिस्तिथि में कोई भी गाय/भैंस उतना की दूध पैदा करती है जितना की उसका बच्चा पीता है लेकिन गाय/भैंसो से ज्यादा दूध निकालने के उद्देश्य से उनके संवर्धन के नाम पर उन पर कई तरह के प्रयोग कर उन्हें एक प्राणी से ज्यादा दूध दुहने की मशीन बना दिया गया है और यह झूठ फैलाया जा रहा है की गाय/भैंस अपने बच्चे की आवश्यकता से ज्यादा दूध देती है।
अगर यह सच होता कि गाय इंसानो के लिए दूध देती है तो उसे जबरन गर्भवती कर उससे बछड़ा पैदा नहीं करवाया जाता वह, वैसे ही आजीवन दूध देती रहती लेकिन ऐसा संभव नहीं है।
बछड़ा पैदा होने के बाद भी वह तभी दूध देती है जब उसे विशवास हो जाता है कि उसका बछड़ा उसके पास है और उसके मन में जो वात्सल्य भाव पैदा होता है उसी के परिणाम स्वरुप उसके आँचल में दूध आता है।
अब यहाँ इंसान का एक और दिल दहलाने वाला छल आपको जानना जरुरी है जिसे जान कर शायद आपको पशुओं का दूध पीने से घृणा होने लगे।
यह बहुत ही प्राकृतिक बात है कि किसी भी मादा के नर या मादा बच्चा होने की संभावनाएँ बराबर होती है इसलिए डेयरी में 50% नर बछड़े और 50% मादा बछियाँ पैदा होती हैं।
मादा बछियाँ तो आगे जा कर फिर से बच्चे पैदा कर दूध दुहने के काम आती है लेकिन डेयरी उद्योग की सबसे बड़ी मुश्किल नर बछड़े होते हैं जिन्हे जिन्दा रख खिलाने पिलाने का खर्च कोई भी नहीं उठाना चाहता क्योंकि यह बहुत ही घाटे का सौदा होता है।
लेकिन अगर बच्चा सामने न हो तो दूध निकलना भी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि माँ में अगर वात्सल्य भाव नहीं होगा तो दूध भी आसानी से नहीं आता इसलिए अकसर नर बच्चे की हत्या कर उसकी खाल में भूसा भर कर सामने रख दिया जाता है। इस धोखे में कि उसका बच्चा जिन्दा है उस माँ को दूध आता रहता है।


इस तरह से बच्चे की हत्या कर उसकी खाल में भूसा भर कर बनाये हुए बच्चे को ही खालबच्चा कहा जाता है।
क्या अब हिन्दू संगठनों को भी गौ हत्या से एतराज़ नहीं है?