दूध और पर्यावरण में गहरा रिश्ता है और बढ़ता दूध उत्पादन ग्रीन हाउस गैसेस के उत्पादन के लिए जिम्मेदार है।
हमारे यहाँ ऐसी कहावत है कि पुराने ज़माने में भारत में दूध की नदियां बहती थी। यह कहावत क्यों और कैसे बनी इसका तो पता नहीं लेकिन इसमें थोड़ी सी भी सच्चाई होगी इसमें संदेह है।
संदेह का कारण भी है कि आज से लगभग 40 साल पहले तक दूध खरीदने के लिए कतार लगनी पड़ती थी और वह भी सिर्फ सुबह और शाम को ही दूध उपलब्ध होता था। अगर 40 साल पहले जब जनसँख्या आज से काफी काम थी तब यह हाल था तो प्राचीन काल में सोच सकते हैं कि दूध की उपलब्धता क्या होती होगी।
अगर आज यह कहा जाये कि देश में दूध की नदियाँ बहती है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि हाँ, आज देश में दूध की नदियां बहती है। आज भारत में दूध का उत्पादन कितना है इसके लिए कुछ आंकड़ों पर नज़र डालें तो स्पष्ट हो जायेगा। भारत दुनिया का लगभग 17 प्रतिशत दूध का उत्पादन करता है। भारत में 2017-18 में लगभग 176 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ था और यह 5% की दर से हर वर्ष बढ़ रहा है।
इतना दूध का उत्पादन होने के बावजूद दूध की खपत उससे अधिक रफ़्तार से बढ़ती जा रही है। यहाँ तक कि दूध और उससे बने उत्पादों की मांग पूरी करने के लिए कृत्रिम नकली दूध बना कर भी बाज़ार में बेचा जा रहा है।
क्यों है भारत में दूध की इतनी मांग?
वैसे तो सबसे बड़ा कारण धार्मिक ही है। दूध को धर्म से जोड़ दिया गया है। सबसे बड़ा उदहारण है श्री कृष्ण का माखन प्रेम जिसका उदहारण दूध का सेवन करने वाले अपने बचाव में देते हैं। लेकिन इसमें भी पूरी सच्चाई है कहना मुश्किल है। इस सम्बन्ध में एक टीवी धारावाहिक में भी दिखाया गया था कि श्रीकृष्ण पशु दूध के सेवन को सही नहीं मानते थे।
भारत में दूध की भारी मांग का एक कारण और भी समझ आता है कि भारत में दुनिया की सबसे बड़ी शाकाहारी जनसँख्या रहती है और यह एक मिथ्या अवधारणा बन चुकी है कि शाकाहारी लोगों को प्रोटीन, केल्सियम और अन्य पोषक तत्वों की जरूरत के लिए दूध और उससे बने उत्पादों का सेवन करना जरुरी है।
दूध उत्पादन से कैसे हो रहा है पर्यावरण को नुकसान?
दूध की भारी मांग को पूरा करने के लिए भारत में 1970 के दशक में श्वेत क्रांति जिसे ऑपरेशन फ्लड के रूप में जाना जाता है की शुरुआत हुई थी। इसने भारत को दूध की कमी वाले राष्ट्र से दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादकों में बदल दिया।
इतनी अधिक मात्रा में दूध के उत्पादन के लिए उतनी ही संख्या में दुधारू पशुओं का होना भी जरुरी है। पशुओं को बड़ा करने और उनके रख रखाव के लिए बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत होती है। इन पशुओं के खाने के लिए भी भारी मात्रा में अनाज और चारे की जरूरत होती है। उसे पैदा करने के लिए उतनी ही मात्रा में पानी और जमीन की भी जरूरत पड़ती है।
जमीन की कमी को पूरा करने के लिए काफी मात्रा में जंगलों का भी सफाया किया जाता है। जंगल समाप्त होने से कई प्रजातियां विलुप्त होने के कागार पर पहुँच गयी है।
दुनिया भर में लाखों किसान दूध उत्पादन के लिए लगभग 270 मिलियन डेयरी गायों का उपयोग करते हैं। दूध उत्पादन विभिन्न तरीकों से पर्यावरण को प्रभावित करता है, और इन प्रभावों का पैमाना डेयरी किसानों और चारा उत्पादन के तरीकों पर निर्भर करता है।
अक्सर इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है कि अगर डेयरी उद्योग से निकलने वाला अपशिष्ट नदी व नालों तक पहुंच जाता है तो यह एक बहुत बड़ा प्रदूषण का कारण हो सकता है।
भारत में जल शोधन पर कड़े कानून नहीं होने के कारण यह अपशिष्ट नदी नालों में पहुँच ही जाता है और यह यह अनुपचारित घरेलू सीवेज की तुलना में 400 गुना अधिक प्रदूषणकारी हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप नदी नालों के पानी में ऑक्सीजन का स्तर, इतना गिर सकता है कि मछली और अन्य प्राणियों का दम ही घुट जाए।
डेयरी गाय और उनकी खाद से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान देता है। खाद और उर्वरकों के खराब संचालन से स्थानीय जल संसाधनों का क्षरण हो सकता है। और निरंतर डेयरी, खेती और चारा उत्पादन से पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों, जैसे कि घास के मैदानों, नम भूमि, और जंगलों का नुकसान हो सकता है।
2005 के आंकड़ों के अनुसार वैश्विक स्तर पर, डेयरी उत्पादन सभी मानव-निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के 2.8 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है।
इस विषय पर एक बहुत ही प्रभावशाली documentary फिल्म भी बनी है Cowspiracy जिसमे पशुओं की खेती और उसके पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों पर बहुत गहन और विस्तार जानकारी दी गयी है। इस पूरी फिल्म Netflix पर उपलब्ध है।
इस फिल्म का ट्रेलर आप यहाँ देख सकते हैं –
भारत के सन्दर्भ में देखा जाये तो डेयरी और पर्यावरण पर इसके दुष्प्रभाव पर अभी तक खुल कर कोई बहस नहीं हुई है न ही मीडिया ने इस पर कोई चर्चा करना उचित समझा है। शायद इसके पीछे एक मुख्य कारण हो सकता है कि दूध और गाय को हमारे देश में धर्म से जोड़ दिया गया है और पवित्र माना गया है।
New York Times छपा यह लेख इस बात की पुष्टि करता है कि इस विषय में अन्य दिशों में काफी शोध हुआ है और ईमानदारी से काफी कुछ कहा गया और छापा भी गया है।
The Guardian में प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट भी इस समस्या की और ध्यान आकर्षित करती है। Avoiding meat and dairy is ‘single biggest way’ to reduce your impact on Earth
उपरोक्त रिपोर्ट में एक विश्लेषण के हवाले से बताया गया है कि मांस और डेयरी उत्पादों से मिलने वाला भोजन केवल 18% कैलोरी और 37% प्रोटीन प्रदान करता हैं, जबकि इन्हे पैदा करने में 83% खेत का उपयोग करना पड़ता है और इनके कारण 60% कृषि ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जनहोता है।
इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि आज पृथ्वी पर कुल स्तनधारियों में से 96% अब पशुधन या मनुष्य हैं। अर्थात जंगल में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले स्तनधारियों की संख्या में भारी गिरावट हुई है।

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि अगर पर्यावरण पर सबसे कम दुष्प्रभाव डालने वाले पशु उत्पादों की तुलना अगर सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव डालने वाले वनस्पति उत्पादों से करें तो भी पशु उत्पाद आधारित उद्योग कहीं ज्यादा पर्यावरण को दूषित करते हैं।
इस सम्बन्ध में हुए अभी तक के सभी शोध का सार देखें तो यह सामने आता है कि “एक शाकाहारी अर्थात निरवद्य आहार(Vegan food) पृथ्वी पर आपके carbon foot print को कम करने का एकमात्र सबसे बड़ा तरीका है।
वीगन भोजन न केवल ग्रीनहाउस गैसों को कम करने और वैश्विक अम्लीकरण को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है बल्कि, कम भूमि और पानी का उपयोग कर हमारे लिए सम्पूर्ण पोषक तत्वों की पूर्ति भी कर सकता है।
क्या होते हैं वीगन दूध? What Are Plant-Based Milk?