इस प्रश्न के दो भाग हैं लेकिन हमारी समस्या यह है कि जो महत्वपूर्ण है उसे हम जानने और समझने की कतई कोशिश नहीं करते बस बिना सोचे समझे वही करते हैं जो हमारे साथ भी किया गया था। मैं यहाँ प्रश्न के पहले भाग “अधिकांश बच्चे दूध पीने से नफरत करते हैं” को प्रश्न बनाना चाहूंगा कि क्यों नफरत करते हैं? अगर यह बात समझ आ गयी तो फिर आगे कुछ नहीं करना पड़ेगा।
बच्चे दूध पीने से नफरत क्यों करते हैं
सबसे पहली बात दूध, जिसे हम एक सम्पूर्ण आहार मान बैठे हैं, उसे एक छोटा सा बच्चा पीने से मना क्यों कर देता है? बच्चा पैदा होते ही तो माँ के दूध के लिए बेताब रहता है लेकिन जब उसे जानवरों का दूध देने की कोशिश की जाती है तो उसकी प्राकृतिक वृत्ति (natural instinct) उसे इसकी अनुमति नहीं देती और इसलिए वह इसको नहीं पीना चाहता।
ज्यादातर मामलों में अगर जबरदस्ती पिलाया जाता है तो वह उसको उल्टी कर बाहर निकाल देता है। बच्चे का शरीर जानता है कि वह उस दूध को पचा नहीं पायेगा क्योकि धीरे-धीरे माँ के दूध को छोड़ने के बाद उसमें दूध को पचाने वाला एंजाइम बनना बंद हो जाता है इसीलिये उसको जबरदस्ती पिलाया गया दूध उल्टी हो कर बाहर निकल जाता है। जब हम भी उल्टी होने की आकांशा से एक बार घबरा जाते हैं तो बच्चे के बारे में क्या कहना।
लेकिन हम मानते कहाँ है? जबरदस्ती येन केन प्रकारेण बच्चे को दूध पिलाते रहते हैं और वह इस अप्राकृतिक आहार का इसके स्वाद के कारण आदि होने लगता है।
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क्या बच्चों को जबरदस्ती दूध पिलाना सही है?
अब प्रश्न का दूसरा भाग कि “आप उन्हें दूध पिलाने के लिए क्या करते हैं?” मेरा तो यही कहना है कि बच्चे को जबरदस्ती दूध पिलाने की कोशिश करना उसके शरीर के साथ बहुत बड़ा अत्याचार है इसलिए ऐसी कोशिश तो बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए।
बच्चे को 6 महीने तक सिर्फ माँ का दूध पिलाना चाहिए और 6 से 24 महीने तक माँ के दूध के साथ ठोस शुद्ध शाकाहार (ऐसा आहार जो सिर्फ पेड़ पौधों से प्राप्त होता है अर्थात निरवद्याहार) ही देना चाहिए। जब माँ भी दूध पिलाना बंद कर देती है तो उसके बाद उसको आजीवन किसी भी प्राणी के दूध की जरुरत नहीं होती। प्रकृति ने इतने अच्छे फल, अनाज, दालें, सब्जिया दी है उनका समुचित मात्रा में प्रयोग, एक स्वस्थ्य शरीर और समग्र विकास के लिए पर्याप्त होता है।
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