अगर हम इतिहास देखें तो पता चलता है कि कुछ हज़ार वर्षों पूर्व ही इंसानों द्वारा जानवरों को पालना और उनका दूध पीना शुरू किया होगा इसके प्रमाण मिलते हैं। हम लाख दावे कर लें कि भारतवर्ष में देवी देवताओं के ज़माने से दूध का उपयोग किया जाता है लेकिन इसके कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते हैं।
दूध पीना कब शुरू किया और इसका इतिहास
जिन ग्रंथों का हवाला दिया जाता है उसमें भी स्पष्ट रूप से कहीं दूध के सेवन का उल्लेख नहीं है। जो तस्वीरें हम कृष्ण भगवन या अन्य देवी देवताओं की देखते हैं वह कुछ सौ वर्षों पूर्व ही इंसान ने ग्रन्थ पढ़ कर अपनी कल्पना से बनाई है जिसमें गलतियां होने की पूरी-पूरी संभावनाएँ हैं।
हमारे पृथ्वी के लगभग तीन लाख साल के इतिहास में देखा जाए तो पशुओं का दूध पीना एक बहुत ही नयी आदत कहा जा सकता है। आज से कोई 10 हज़ार साल पहले बमुश्किल ही कोई इंसान जानवरों का दूध पीता होगा, वो भी कभी-कभार दूध पीने की आदत सबसे पहले पश्चिमी यूरोप के लोगों को पड़ी। ये वो इंसान थे, जिन्होंने सबसे पहले गाय और दूसरे जानवर पालने शुरू किए थे।
दूध को शुरू से ही शिशु आहार मान जाता रहा है क्योंकि इसमें उपस्थित लेक्टोज़ नामक शर्करा को पचाने की क्षमता इंसान में बचपन के बाद ख़त्म हो जाती है। आज भी विश्व की अधिकांश आबादी दूध में उपस्थित लेक्टोस को पचने में सक्षम नहीं है जैसा की ऊपर फोटो में दिखाया गया है।
जब शुरुआत में यूरोप में लोगो ने वयस्क अवस्था में जानवरों का दूध पीना शुरू किया होगा तब उन्हें अपच और गैस बनने जैसी समस्या का सामना करना पड़ा होगा। लेकिन धीरे-धीरे इंसान की क्रमागत उन्नति (evolution) के साथ साथ कुछ लोगो में लाक्टोस पचाने वाले एंजाइम को जीवित रखने की क्षमता विकसित कर ली थी और वह बिना किसी तकलीफ के पशु-दूध का सेवन करने लगे थे।
यह डीएनए के एक खंड में उत्परिवर्तन का परिणाम है जो लैक्टेज जीन की गतिविधि को नियंत्रित करता है।
लैक्टेस एंजाइम को वयस्क काल तक जिन्दा रखने का गुण मानव सभ्यता के क्रमिक विकास के कारण ही विकसित हुआ और यही कारण है कि आज उत्तरी यूरोप में 90 % लोगो में यह क्षमता विकसित हो गयी है। लेकिन विश्व की अधिकांश आबादी में आज आज भी इस गुण का आभाव ही है जिसमें एशिया और दक्षिण अमेरिका के लोग शामिल हैं।

यूरोप में कई और जगह ऐसे सबूत मिले हैं, जिनसे लगता है कि इंसान ने 6000 साल पहले ही चीज़ बनाना सीख लिया था। बहुत से देशों में जानवरों का दूध पीना अच्छा नहीं माना जाता है। साल 2000 में चीन ने देशव्यापी मुहिम छेड़कर लोगों से डेयरी उत्पाद और दूध का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करने की अपील की थी। असल में चीन की पुरानी सभ्यता में दूध पीने को अच्छा नहीं माना जाता था। आज भी बहुत से चीनी नागरिकों के लिए चीज़ का इस्तेमाल भी उबकाई ला देता है।
घर पर गाय पालन करना और उसका दूध निकलना कितना सही है?
यह दावा कि हमारे देश में प्राचीन काल में दूध-दही की नदियाँ बहा करती थीं बहुत ही हास्यास्पद सा लगता है। पहली बात यदि दूध-दही की नदियाँ बहती थीं तो कृष्ण को माखन चुराने की क्या जरुरत थी? दूसरी बात मैं अपने अनुभव से कहना चाहता हूँ कि सिर्फ 3-4 दशक पूर्व जब में बच्चा था तब दूध खरीदने के लिए लम्बी लम्बी कतार लगा करती थी, और दूध सिर्फ सुबह और शाम को ही मिलता था। जबकि उस समय जनसँख्या भी बहुत कम थी।
सही मायने में दूध-दही की नदियाँ तो अब बह रही है जब श्वेत क्रान्ति के बाद दूध उत्पादन अपने चरम पर है, और जितना, जब चाहिए दूध उपलब्ध हो जाता है। आज दूध के बेहिसाब उत्पादन के लिए जानवरों का डेयरियों में बेहिसाब शोषण किया जाता है-
- उनको जबरन गर्भवती करना
- उनके बच्चों को पैदा होते ही मार देना
- जो जीवित हैं उनको अपनी माँ के दूध से वंचित रखना
- पशु के फ़ायदेमंद नहीं रहने पर उसे आवारा छोड़ देना या कत्लखाने को बेच देना।